स्नान -एक वैदिक सदाचार
भारतवर्ष में स्नान वैदिक काल से प्रातः कालीन नित्यकर्म है।हड़प्पा सभ्यता में भी प्रायः सभी गृहों में स्नानागार की समुचित व्यवस्था थी, इसके कई प्रमाण प्राप्त हुए हैं। वहाँ अभ्यंग (मालिश) की परम्परा के भी लक्षण मिले हैं। आयुर्वेद में दोनों ही की उपयोगिता निःसंदिग्ध है। चरक संहिता में लिखा है कि-"स्नान से जठराग्नि तेज होती है।मन प्रसन्न होता है और आयु बढ़ती है। इससे उत्साह और बल बढ़ता है। खुजली ,मलिनता,, श्रम, स्वेद, तृषा ,दाह और ताप भी दूर हो जाते हैं। ********** स्नान के अन्य नियम*********** सूर्योदय से पूर्व स्नान करें। यथा सम्भव शीतल जल से स्नान करना चाहिए। सूर्य किरणों से जो शक्ति जल में प्रवेश करती है, वह रात्रि में चन्द्र किरणों द्वारा शीतल होने के कारण जल में ही रहती है। इसी कारण प्रातःकालीन जल कुछ गर्म रहता है, जिससे विभिन्न लाभ होते हैं अतः सभी को सूर्योदय से पूर्व ही स्नान कर लेना चाहिए। भोजन करने के उपरांत स्नान न करें। रात्रि में ,यदि कोई विशेष कारण न हो तो स्नान न करें। वाधूल स्मृति में कहा गया कि--- स्नान मूला: क्रिया:सर्वा: , अर्थात सभी कर्म स्नान मूलक हैं। ...