भारतीय संस्कृति में व्रत -उपवास का महत्व

भारतीय संस्कृति में व्रत-उपवास का विशेष महत्व दिया गया है। इससे बुद्धि, ज्ञान ,और विचार शक्ति आदि की वृद्धि होती है।
आयुर्वेद के अनुसार भी इससे अनेक रोगों का नाश होता है। शरीर की शुद्धि होती है।

जो भी व्रत उपवास कर रहा है उसके मन में श्रद्धा होनी अत  आवश्यक है।
इसके कई प्रकार हैं किन्तु जनमानस में व्रत और उपवास दो हैं।

****व्रत और उपवास******
व्रत और उपवास दोनों वस्तुतः एक ही हैं किन्तु भेद यह है कि व्रत में भोजन किया जा सकता है।
और उपवास में एक अहोरात्र निराहार रहना पड़ता है।
इनके तीन प्रमुख भेद हैं- ----
१. कायिक
२.वाचिक
३.मानसिक ।
अन्य भेद----
१.काम्य--–जो इच्छा पूर्ति के लिये अर्थात जो कामना परक होते हैं।
जैसे-वटसावित्री आदि।
२.नित्य --- जो पुण्य संचय के लिए किये जाते हैं।
जैसे-एकादशी आदि।
३.नैमित्तिक, नक्त, अयाचित, मितभुक आदि।

****व्रत सम्बन्धी नियम******
किसी भी व्रत का उद्यापन अपने धन के अनुसार करना चाहिये।
पद्मपुराण का वचन है कि जल,फल,मूल,दूध,मेवा समायुक्त खीर,ब्राह्मण की इच्छा, औषधि और गुरु(पूज्यजनों)के वचन-इन आठ से व्रत नहीं बिगड़ते।

गौतम स्मृति का वचन है कि यज्ञ से बची खीर, जौ का सत्तू, तोरई, ककड़ी,मेथी ,गो दूध, दही, घी, आम ,अनार, नारंगी और केला आदि खाने योग्य कहे गये हैं।

लम्बी अवधि वाले व्रतों में पहले ही संकल्प कर लिया हो तो जन्म मरण का सूतक नहीं लगता।

किसी काम्य व्रत में सूतक आ जाये तो दान और पूजन के सिवा व्रत में कोई बाधा नहीं आती।

बड़े व्रत के आरम्भ में यदि स्त्री रजस्वला हो जाये तो भी व्रत में कोई रुकावट नहीं आती।

व्रत दिन में सोने ,पान चबाने और स्त्री सहवास से बिगड़ जाते हैं।





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